मंगलवार, 6 नवंबर 2018
सोमवार, 17 सितंबर 2018
कितनी बेअक्ल जिंदगानी है?
थोड़ी सुननी, बहुत सुनाानी है।
रात है, नींद है, कहानी है।।
सबको मदहोश कर गयी है वो।
एक खुशबू जो ज़ाफरानी है।।
इश्क में मुस्कुराने की ज़िद है।
अपनी तो बस ही नादानी है।।
मौत आये, सुकून मिल जाये।
उसका पहलू, मेरा पेशानी है।।
आ गये तर्के-ताल्लकु के दिन।
फिर छिड़ी नरगिसी कहानी है।।
हर घड़ी आरजू उसी की है।
कितनी बेअक्ल जिंदगानी है?
खुद से नज़रें मिला नहीं पाता
उसकी आंखों का मरा पानी है।।
ख्वाब का कत्ल हो गया होगा।
कितनी खोयी सी रात रानी है।।
दिल की ये दास्तां कहें किससे?
सबका जीवन भी कितना फ़ानी है?
बेवफा गिरि का नाम लेते क्यों?
अपनी करनी उन्हें छुपानी है।।
-आकर्षण कुमार गिरि।
उस तीर का स्वागत है, जिस पे नाम मेरा है लिक्खा।।
कभी कातिल, कभी महबूब,
कभी मसीहा लिक्खा।
हमने उनको बेखुदी में
खुद न जाने क्या लिक्खा।।
इम्तिहाने-जीस्त में हासिल
सिफर, पर क्या गिला?
उसको उतने अंक मिले
जिसने जैसा परचा लिक्खा।।
लाखों दस्तक पर भी तेरा,
दरवाजा तो बंद रहा।
जाते जाते दर पे तेरे,
अपना नाम पता लिक्खा।।
यूं रदीफो काफिया,
मिसरे, हमें मालूम थे।
तुम न समझोगे कि क्यों,
हर शेर को मक्ता लिक्खा??
मेरी मंजिल की दुआ,
दिन रात रहती है यही।
पढ़ न पाऊँ मैं उसे,
जो मील के पत्थर पे लिक्खा।।
अपनी आदत है नहीं,
मेहमान से मुख मोड़ना।
उस तीर का स्वागत है,
जिस पे नाम मेरा है लिक्खा।।
गीत, गज़लें या रुबाई,
तुम जो चाहो सो कहो।
एक मोहब्बत ही लिखा,
और 'गिरि' ने क्या लिक्खा?
-आकर्षण कुमार गिरि।
मंगलवार, 30 मई 2017
वो जो इक तीर सा तेरी नजर से निकला था।।
छोड़के मुझको मेरे दर से जब तू निकला था।
जैसे आकाश फटे, खूं जिगर से निकला था।।
किसी की न सुनी, सब की जान ले के गया।
वो जो इक तीर सा तेरी नजर से निकला था।।
सदियों तक मेरे जेहन में गूंजता ही रहा।
कठिन सवाल सा, जो लब से तेरे निकला था।।
मेरी आँगन छोड़, सारे जग को रोशन कर गया।
वो एक जुगनू था जो कल ही, मेरे घर से निकला था।।
वो क्या ख़ाक बतायेगा, किस सिम्त शम्स डूबेगा?
जिसे खबर ही नहीं, सूरज किधर से निकला था।।
भोले भाले गिरि से सोचो, क़त्ल किसी का क्या होगा?
लेकिन सच है खूनी खंजर, उनके घर से निकला था।।
-आकर्षण कुमार गिरि।
सोमवार, 8 मई 2017
मुझे खुद को कहार करना था.......
मुझसे थोड़ा तो प्यार करना था।
एक बार ऐतबार करना था।।
दिल को बस जार जार करना था।
एक बार ऐतबार करना था।।
दिल को बस जार जार करना था।
कुछ तो ऐसे निबाह करना था।।
साथ रिश्तों का ऐतबार लिये।
हमको ये दश्त पार करना था।।
जमीं पर उतर के चाँद आये।
गम-ए-दौरां बिठा के डोली में।
रोज खुद को कहार करना था।।
याद में जो कटी, कटी ना कटी।
दिल जो हल्का हुआ तो याद आया।
तेरी मर्जी से आह भरना था।।
रूह को भी करार आ जाए।
कोई ऐसा करार करना था।।
गैर में ऐब ढूंढने वाले।
कुछ तो खुद में सुधार करना था।।
क्यों आस्तीन चढ़ी हुई है तेरी।
क्या मुझसे आर पार करना था।।
बोल तेरे थे क्यों कर मिसरी की डली थी।
शायद 'गिरि' पर और प्रहार करना था।।
- आकर्षण कुमार गिरि
रविवार, 30 अक्तूबर 2016
है वही उन्वान, लेकिन रोशनाई और है........
चित भी उसकी, पट उसी की,
सब सियासी तौर है।
कह रही है कुछ जबां,
कह रही है कुछ जबां,
लेकिन कहानी और है।।
था वही, जिसकी इबादत में
था वही, जिसकी इबादत में
जहां पाबोस था।
और, हम समझे कि
और, हम समझे कि
दुनिया की खुदाई और है।।
मैं सहन करता रहा हंस हंस के
मैं सहन करता रहा हंस हंस के
सब जुल्मो सितम।
वो तो खुद कुछ और,
वो तो खुद कुछ और,
उनकी बेहयाई और है।।
नींद गहरी है मगर,
नींद गहरी है मगर,
अब रात हर बेख्वाब से।
है वही चादर, मगर
है वही चादर, मगर
अब चारपाई और है।।
दाग छुप जायेंगे,
दाग छुप जायेंगे,
दीवार पुत जाने के बाद।
घर की पुताई और है,
घर की पुताई और है,
सच की पुताई और है।।
कहने को तो कह देते हैं-
कहने को तो कह देते हैं-
दुनिया मेरे ठेंगे पर।
जग की परवाह और है
जग की परवाह और है
जग की हंसाई और है।।
गीतों में 'गिरि' के अब भी,
गीतों में 'गिरि' के अब भी,
है तपिश उस प्यार की।
है वही उन्वान लेकिन,
है वही उन्वान लेकिन,
रोशनाई और है।।
मंगलवार, 29 दिसंबर 2015
तू उससे आंख मिला, बातचीत जारी रख......
अपनी आंखों
में
हसीं ख्वाब की स्याही रख।
हसीं ख्वाब की स्याही रख।
बहुत प्यासा
है तू,
पास एक सुराही रख।।
पास एक सुराही रख।।
तेरी मंजिल
की हदें
तुझसे ही गुजरती हैं।
तुझसे ही गुजरती हैं।
एक मुसाफिर
है तू,
तू मन का सफर जारी रख।।
तू मन का सफर जारी रख।।
वो न लहरों में
कभी डूबा है,
औ न डूबेगा।
औ न डूबेगा।
तू हिफाजत से
रहेगा,
तू उससे अपनी यारी रख।।
तू उससे अपनी यारी रख।।
उसने बड़े ही
करीने से
बनाई है दुनिया।
बनाई है दुनिया।
ये तुझपे है
कि
उस दुनिया की तू सफाई रख।।
उस दुनिया की तू सफाई रख।।
हमसे बिछड़ोगे
तो
आधे ही कहे जाओगे।
आधे ही कहे जाओगे।
मुकम्मल दासतां
के वास्ते
तू मुझसे यारी रख।।
तू मुझसे यारी रख।।
खूब हंसके फरेब देते हैं
ये दिलवाले।
ये दिलवाले।
या तो तू दिल
को संभाल,
या तो तू अय्यारी रख।।
या तो तू अय्यारी रख।।
ऐसी क्या बात
हुई
मुझसे खफा बैठे हो।
मुझसे खफा बैठे हो।
कभी तो ऐसा हो,
मेरी साफगोई की कदर भी रख।।
मेरी साफगोई की कदर भी रख।।
वो दिलफरेब
है,
करता है बात बस हल्की।
करता है बात बस हल्की।
तू उससे कुछ
न कह,
अपनी निगाह भारी रख।।
अपनी निगाह भारी रख।।
'गिरि'
की आंखों में
इक खुशबू है तेरे चाहत की।
इक खुशबू है तेरे चाहत की।
तू उससे आंख
मिला,
बातचीत जारी रख।।
बातचीत जारी रख।।
- आकर्षण कुमार
गिरि।
बुधवार, 29 जुलाई 2015
इक घोंसले के वास्ते, परवाज़ कितनी चाहिये......
फिर
बना लूं इक नयी
कागज की कश्ती आज भी।
कागज की कश्ती आज भी।
है कला वो याद,
पर बचपन पुराना चाहिये।।
पर बचपन पुराना चाहिये।।
तेरे घर के सामने
एक घर बनाने के लिये।
एक घर बनाने के लिये।
सिर्फ पैसा ही नहीं,
एक प्लॉट खाली चाहिये।।
एक प्लॉट खाली चाहिये।।
सीखना है कुछ अगर,
इन पंछियों से सीखिये।
इन पंछियों से सीखिये।
तिनका-तिनका
कर के ही,
एक घर बनाना चाहिये।।
एक घर बनाना चाहिये।।
लब को सी लें, अश्क
पी लें,
और उफ्फ भी ना करें।
और उफ्फ भी ना करें।
है बहुत मुश्किल...
मगर,
दिल बाज़ जाना चाहिये।।
दिल बाज़ जाना चाहिये।।
क्या करें क्या ना
करें?
ग़र ऐसी उलझन हो कभी।
ग़र ऐसी उलझन हो कभी।
क्या करें की सोचकर
सब भूल जाना चाहिये।।
सब भूल जाना चाहिये।।
सामने मंजिल अगर,
खुद से बड़ी लगने लगे।
खुद से बड़ी लगने लगे।
छोड़ कर हर राह,
सीधे घर को जाना चाहिये।।
सीधे घर को जाना चाहिये।।
चोंच में तिनका दबाकर,
ऐ गिरि उड़ते हो क्यों?
ऐ गिरि उड़ते हो क्यों?
इक घोंसले के वास्ते,
परवाज़ कितनी चाहिये?
परवाज़ कितनी चाहिये?
- आकर्षण कुमार गिरि।
गुरुवार, 16 जुलाई 2015
जब समझोगे, तब समझोगे.......
बेदर्द सवालों के मतलब,
जब समझोगे तब समझोगे।
दुखती रग क्योंकर दुखती है?
जब समझोगे तब समझोगे।।
जब समझोगे तब समझोगे।।
रुखे-सूखे
रिश्ते-नाते,
और मरासिम मद्धम से।
और मरासिम मद्धम से।
इनसे होकर कैसे गुजरें,
जब समझोगे तब समझोगे।।
जब समझोगे तब समझोगे।।
एक और एक ग्यारह भी
है,
एक और एक सिफर भी है।
एक और एक सिफर भी है।
ये अहले सियासी बातें हैं,
जब समझोगे तब समझोगे।।
जब समझोगे तब समझोगे।।
मंजिल के आने से पहले,
मैं क्यों थक कर बैठ गया?
मैं क्यों थक कर बैठ गया?
मंजिल भी दूर छिटकती
है,
जब समझोगे तब समझोगे।।
जब समझोगे तब समझोगे।।
दिल से दिल को मिलाना
होगा,
आंख मिलाने से पहले।
आंख मिलाने से पहले।
ये है बुनियादी बात
मगर,
जब समझोगे तब समझोगे।।
जब समझोगे तब समझोगे।।
बदनामी को मोल लिया,
हर ताने पर साधी चुप्पी।
हर ताने पर साधी चुप्पी।
मेरी खामोशी का मकसद,
जब समझोगे तब समझोगे।।
जब समझोगे तब समझोगे।।
हमने तुमको हमदम जाना,
तुमने हमको बेच दिया।
तुमने हमको बेच दिया।
'गिरि' के
मोल को क्या जानो,
जब समझोगे तब समझोगे।।
जब समझोगे तब समझोगे।।
-आकर्षण कुमार 'गिरि'
रविवार, 14 जून 2015
शायद वो भी हमदम निकले......
तुम माटी के पुतले
निकले।
सोच से बिल्कुल उल्टे
निकले।।
मंजिल उनके सजदे करती।
जो भी घर से बाहर निकले।।
अपने ग़म को बांध के
रख लो।
शायद अरमां अब कम
निकले।।
घर की जानिब जिनका रुख
था।
वो ही सबसे बेहतर
निकले।।
उसको चल कुछ कह कर
निकलें।
शायद वो भी हमदम निकले।।
तुम थे... मैं था... ठीक ही था।
तीसरे शायद मौसम निकले।।
महफिल को बेनूर है होना।
हम निकलें या.. हमदम निकले।।
शफक तुम्हारे कदमों में है।
लेकिन 'गिरि' को अब पर निकले।।
- आकर्षण।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता
जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...
-
बेरुखी का कोई चिराग जलाये रखना कम से कम एक सितारे को सताये रखना शमा जल जायेगी बुझ जायेगी रुसवा होगी दिल में जज्बात की इक लौ को जलाये रखना...
-
दर्द जब खुद ही संवर जाता है जाने कितनों का ग़म चुराता है मेरे ज़ख्मों का चीरकर सीना कर्ज़ औरों के वो चुकाता है तेरी सोहबत का उस पे साया है...
-
जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...