मंगलवार, 9 नवंबर 2010

महंगाई और चाँद - 2

मैं तब किशोर था
जब मैं एक कवि सम्मलेन में यूँ ही चला गया
वहां कई कवियों को सुनना अच्छा लगा
बहुत ही अच्छा
पर
दो पंक्तियों ने मुझे अन्दर तक झिंझोड़ कर रख दिया
" ऐ चाँद!
तुम क्यों नहीं उतर आते?
मेरे बेटे की थाली में
रोटी का टुकड़ा बनकर"
शायद इसलिए कि
मैंने पहली बार
चाँद में मामा, सूत काटने वाली बुढ़िया
और प्रियतमा की सूरत से अलग
एक नए बिम्ब की कल्पना सुनी थी...
बाद में मानो-
जैसे जेहन से खो गयी थी ये पंक्तियाँ...
पर आज ये पंक्तियाँ बारहा याद आती हैं
तब
जब मैं महीने का राशन खरीद रहा होता हूँ
तब
जब मुझे अपने बेटे के लिए छोटी सी चीज खरीदनी होती है
तब
जब चैनल वाले चीख चीख कर कह रहे होते हैं
कि महंगाई बढ़ गयी है
और जनता के लिए नीतियाँ बनानेवाले
उनका खंडन करते चले जाते हैं...
और जब दूर फिजाओं में
महंगाई डायन खाय जात है गूंजती है
तब मन में एक कसक सी उठने लगती है...
मैं....
हर महीने बढ़ती महंगाई से अपने वेतन की
तुलना करने लगता हूँ
और वेतन को हमेशा कम पाता हूँ...
बहुत मुश्किल लगता है
एक छोटा सा परिवार चलाना.
अब तो वो उम्र भी नहीं रही
कि
चाँद को मामा कह कर बुलाऊँ
और ये उम्मीद करुं
कि
मामा सब ठीक कर देगा
बचपन में जो चाँद चटकीला नज़र आता था
अब मद्धम नज़र आता है
शायद चाँद भी
कवि की कल्पना
और महंगाई की बोझ से दब चला है
गनीमत है
चाँद पर महंगाई की सीधी मार नहीं पड़ती
वरना वो भी इंसानों की तरह टूट गया होता
खैर,
बीत गया
जब चंदा मामा पुआ पकाया करता था
बीत गया
जब चाँद में कोई बुढ़िया सूत काटा करती थी...
अब तो कवि की कल्पना में चाँद रोटी है.
वो रोटी
जो देश की आधी आबादी को
एक शाम नहीं मिलती
चाँद मद्धम है...
चाँद बोझिल है
चाँद उदास है इन दिनों
बुरा हो !
निगोड़ी महंगाई डायन का...

- आकर्षण कुमार गिरि
* खेद है कि मुझे उस कवि का नाम याद नहीं आ रहा है जिनकी पंक्तियाँ मैंने उद्धृत की हैं..

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

महंगाई और चांद-1

इस कमरतोड महंगाई में
जबसे रोटी का जुगाड दूभर हुआ है
कवियों ने चांद में रोटी देखना शुरू कर दिया
और अब.....
धुंधला सा चांद 
अपना पता बताने से डरने लगा है.....

गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...