शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

उस ठूंठ से परिंदों ने घोंसले हटा लिये...

तुम्हारे ख्वाब की ऐसी हसीं ताबीर थी जानम
तेरे दामन पे हम पैबंद दिखते सो मुकर लिये.

गली थी बंद उसका आखिरी मकान तेरा था
न अब कोई बहाना था सो हम वापस को हो लिये.

न तुम मेरे रहे और न तन्हायी मेरी हुई
भला मैं क्यों भटकता महफ़िल-ए-तिश्नगी के लिये.

दश्तो-सहरा, दरिया-साहिल सबका एक फ़साना है
और भला हम क्या गा लेते अपना टूटा साज़ लिए.

जिस साये में 'गिरि' को आशियां अपना बनाना था
उस ठूंठ से परिंदों ने घोंसले हटा लिये.

         - आकर्षण कुमार गिरि

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

चांद को मुंह चिढाना चाहता हूँ ......

चांद को मुंह चिढाना चाहता हूँ.
मैं तारों से निभाना चाहता हूँ.

मशीयत से कहो चाहे न मुझको
ज़मीन पर घर बनाना चाहता हूँ

ये दम है कि निकलता ही नहीं
मैं एक वादा निभाना चाहता हूँ.

मुझे बेकद्र दुनिया क्योंकर समझे
ज़माने को बदलना चाहता हूँ.

शनिवार, 24 जुलाई 2010

हर रात बदलती रही हर ख्वाब बदलते रहे

आरज़ू थी कि न बदलूं और बदल जाऊं मैं
एक ही घर में रहे, कमरे बदलते रहे.



हर राह से गुजरूं, तमन्ना मेरे मन की थी
चंद कदम के बाद हम हर राह बदलते रहे.



क्या कहोगे उसको जिसकी जिंदगी की महफ़िल में
हर ताल बदलती रही, हर साज़ बदलते रहे.



महफ़िल में तेरे शेर न गाऊं तो क्या करूं
मिलते रहे तुम सबसे और हर बात बदलते रहे.



कैसे साकार करोगे अपने सपनों को ऐ 'गिरि'
हर रात बदलती रही हर ख्वाब बदलते रहे.

       - आकर्षण कुमार गिरि

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

रोज़, हर रोज़ हम बदलते रहे....

जिंदगी से निबाह करते रहे.
रोज़, हर रोज़ हम बदलते रहे.

दुश्मनों से सदा निभाते रहे.
दोस्तों से फ़रेब करते रहे.

पग पग पे बिछी थी कोई शतरंजी बिसात.
कभी प्यादा, कभी घोड़े की तरह चलते रहे.

कोइ क्योंकर मेरा स्थायी पता मांगे है.
घर किराए का था - हर रोज़ बदलते रहे.

कोई कहता था कि पत्थर के हो तुम.
तुझको हम रोज़ पूजते ही रहे.

मैं भला कैसे समझ पाता तुझे.
तुम तो हर रोज़ रंग बदलते रहे.

तेरी दुआओं में है गज़ब का असर.
 और हम रोज़ अपनी जान से गुजरते रहे.

आवारगी ने "गिरि" तुम्हें मशहूर कर दिया.
रास्ते के हो गये, किसी मंज़िल के न रहे.




रविवार, 18 जुलाई 2010

तुम बहुत याद आये

कांपती कश्ती दिखी मझधार में
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

बीती सदियों का जब हिसाब किया  
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

आज फिर जीने कि ललक जागी है 
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

उसने किसी और को ज़ालिम कहा 
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

उस फ़साने में फिर से 'गिरि' का ज़िक्र था
और तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये. 

-आकर्षण कुमार गिरि

शनिवार, 17 जुलाई 2010

क्या कहें......

तुम हमारे हमसफ़र हो क्या कहें!
फिर वही तन्हा सफ़र हम क्या कहें!

यूं तो सीधा ज़िंदगी का है सफ़र
और अपनी चाल टेढी क्या कहें!

तुम बदल जाओगे - ये मालूम था
हम भला कैसे बदलते? क्या कहें!

तेरे बारे में ज़माना पूछता है
रोज एक नई कहानी क्या कहें!

तुम हमें बदनाम करते ही रहे
आदतन अपनी खामोशी क्या कहें!

लोग कहते हैं सुधर जाओ 'गिरि'
लेकिन हम हैं कि हमीं, हम क्या कहें!

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मत पूछो क्या क्या देखा है....

चंद दिनों के इस जीवन में
मत पूछो क्या क्या देखा है.
कैसे कैसे को हमने
कैसा कैसा बनते देखा है

छल प्रपंच और सीनाजोरी  
मुंह में राम बगल में छुरी
ऊपर तक जो जा पहुंचे हैं 
उनको सब करते देखा है. 

जिस शीशे में अक्स तुम्हारा 
एक नहीं कई बार उभरा था
उस बेशर्म को तेरे आगे 
हमने मुकर जाते देखा है.

मत पूछो कैसे वो पहुंचा 
अपने घर के दरवाजे तक 
उसके कंधों पर हमने 
रास्तों का बोझ बड़ा देखा है.

जिनमे ख्वाब बहुत बोये थे
कोमल स्वप्न बहुत सोये थे
नींद खुली तब उन नैनों में
बादल को घिरते देखा है.

जिस खंजर ने दिल पर मेरे
एक नहीं, कई वार किये
उस खंजर को एक कोने में
चुपके से रोते देखा है.

इक्कीसवीं सदी आयी पर
घबराने की बात नहीं है
हमने कितने सिद्धार्थों को
हंसों पर मरते देखा है.

                    - आकर्षण कुमार गिरि




शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कोई सरकार नहीं तुम जो मुकर जाओगे


चलो वादे पे तेरे फिर से ऐतबार किया 
कोई सरकार नहीं तुम जो मुकर जाओगे 

तन्हाइयों कि भीड़ में तनहा खड़ा हूँ मैं 
देखना है कि कितना इंतज़ार कराओगे

इस  सफ़र में तुम नए हो, और मैं राही नया 
भूले-भटके ही सही, एक रोज़ तो मिल जाओगे 

सख्त हिदायत है, ज़मीं से दूर मत जाना कभी
आसमां तक जाओगे, तो बेनिशां हो जाओगे 

कुछ कमी तुम में है लेकिन, दूर मत करना उन्हें 
ऐसा कर लोगे तो डर है, तुम खुदा हो जाओगे

मुन्तजिर मां  ने दरवाजा खुला रखा है कब से
है  यकीन उसको,  कभी तुम लौट कर घर आओगे 

जहां रहो, तेरा मुनासिब सा इस्तेक़बाल रहे 
गुरूर में हो तुम, शायद ही 'गिरि' के घर आओगे.
- आकर्षण कुमार गिरि 


गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...