मंगलवार, 25 मई 2010

तनहा तन्हाई

मैंने जिसको महसूस किया है, वो तेरी परछाई है.
देर हुई पर समझ गया , कितनी तनहा तन्हाई है.

हम ये समझे चुका चुके,  हम तेरा जन्मों का कर्जा
और तकाजा करने देखो, फिर तेरी  याद आई  है. 

जीवन की इस डोर को कब का, वक़्त के हाथो छोड़ चले
किस्मत चाहे गुल जो खिलाये, होनी अपनी रूसवाई है.

दौलत की है खान ये दुनिया-चांदी, सोना, महल, दोमहले 
अपने हाथ में फूटा खप्पर, दिल कि यही कमाई है.

आज ग़ज़ल के पीछे क्यों वो आवारा सा फिरता है?
शायद 'गिरि' के फक्कडपन को, याद किसी की आई है.

                                               - आकर्षण
                          

बुधवार, 5 मई 2010

आज मैं रूठ गया हूँ

उसकी तरह से मैं रूठा हैं, शायद मुझे मना लेगा,
और नहीं तो कम से कम, सर को मेरे सहला देगा.

मैं तो मजबूर हूँ  -   हर हाल में मानना है मुझे
देखना ये है कि वो मुझको क्या सदा देगा?

उसका हक था वो बार बार रूठ जाता था
और जिद ये - कि ये नादां उसे मना लेगा.

आज मैं बे-इन्तेहाँ रूठा हूँ, शायद वो मनाने आये
(झूठ मूठ का रूठा हूँ )
उसका मनाना मुझे, मनाने के गुर सिखा देगा.

'गिरि' तो अभी शोख है, नादाँ है, बड़ा नटखट है,
उसके अल्हड़पन पे खुद ही मुस्कुरा देगा.  

गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...