मंगलवार, 6 नवंबर 2018

दिवाली... संघर्षों का जश्न....


एक अकेले दीपक से दिवाली नहीं होती।
दिवाली होती है
अनगिन छोटे छोटे दीयों से।
अंधेरे को दूर तो कोई भी भगा सकता है।
बल्ब, ट्यूब, एलईडी और न जाने क्या क्या?
मगर इस रोशनी से जश्न नहीं होता।
जश्न तो तब होता है
जब, छोटा से छोटा दीपक
कंपकंपाते लौ के साथ
एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले
अपने मिट जाने तक 
अंधियारे को दूर भगाने को तत्पर होता है।
जश्न वैयक्तिक महानता के नहीं मनाए जाते,
जश्न तो साझा संघर्षों का मनाया जाता है।

आइए,
कौन बड़ा कौन छोटा? 
भूल जाइये,
एक दूसरे का हाथ थामिए,
संघर्ष कीजिये
(कम से कम संघर्ष करते दीखिये।)
उसी दिन उत्सव होगा
उसी दिन दिवाली होगी...।
                               - गिरि।

जवानी,जोश,जज़्बा और अल्हड़पन निखरने दो.......


चिरागों का ये मौसम है, 
चिरागों को मचलने दो।
वो लौ इठला रही देखो, 
लहरने दो, संवरने दो।।

अमावस की अंधेरी रात, 
यूँ रोशन नहीं होती।
जवानी,जोश,जज़्बा और 
अल्हड़पन निखरने दो।।
                                                           -गिरि।

नहीं तन्हा ये अम्बर है.......


नज़र जिस सिम्त जाती है, 
चिरागों के समंदर हैं।
जिसे तू ढूंढता हर पल, 
वो तेरे मन के अंदर है।।

अंधेरी रात है तन्हा, 
औ कालापन भी तन्हा है।
उजाला उर में भर देखो, 
नहीं तन्हा ये अम्बर है।।
            -गिरि।

सोमवार, 17 सितंबर 2018

कितनी बेअक्ल जिंदगानी है?

थोड़ी सुननी, बहुत सुनाानी है।
रात है, नींद है, कहानी है।।

सबको मदहोश कर गयी है वो।
एक खुशबू जो ज़ाफरानी है।।

इश्क में मुस्कुराने की ज़िद है।
अपनी तो बस ही नादानी है।।

मौत आये, सुकून मिल जाये।
उसका पहलू, मेरा पेशानी है।।

आ गये तर्के-ताल्लकु के दिन।
फिर छिड़ी नरगिसी कहानी है।।

हर घड़ी आरजू उसी की है।
कितनी बेअक्ल जिंदगानी है?

खुद से नज़रें मिला नहीं पाता

उसकी आंखों का मरा पानी है।।

ख्वाब का कत्ल हो गया होगा।
कितनी खोयी सी रात रानी है।।

दिल की ये दास्तां कहें किससे?
सबका जीवन भी कितना फ़ानी है?

बेवफा गिरि का नाम लेते क्यों?
अपनी करनी उन्हें छुपानी है।।

-आकर्षण कुमार गिरि।

उस तीर का स्वागत है, जिस पे नाम मेरा है लिक्खा।।

कभी कातिलकभी महबूब
कभी मसीहा लिक्खा। 
हमने उनको बेखुदी में 
खुद न जाने क्या  लिक्खा।।

इम्तिहाने-जीस्त में हासिल
सिफरपर क्या गिला?
उसको उतने अंक मिले
जिसने जैसा परचा लिक्खा।।

लाखों दस्तक पर भी तेरा, 
दरवाजा तो बंद रहा।
जाते जाते दर पे तेरे
अपना नाम पता  लिक्खा।।

यूं रदीफो काफिया
मिसरे, हमें मालूम थे।
तुम न समझोगे कि क्यों, 
हर शेर को मक्ता लिक्खा??

मेरी मंजिल की दुआ
दिन रात रहती है यही।
पढ़ न पाऊँ मैं उसे
जो मील के पत्थर पे लिक्खा।।

अपनी आदत है नहीं
मेहमान से मुख मोड़ना।
उस तीर का स्वागत है, 
जिस पे नाम मेरा है लिक्खा।।

गीतगज़लें या रुबाई
तुम जो चाहो सो कहो।
एक मोहब्बत ही लिखा
और 'गिरिने क्या लिक्खा?
                                            
-आकर्षण कुमार गिरि

गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...