कभी कातिल, कभी महबूब,
कभी मसीहा लिक्खा।
हमने उनको बेखुदी में
खुद न जाने क्या लिक्खा।।
इम्तिहाने-जीस्त में हासिल
सिफर, पर क्या गिला?
उसको उतने अंक मिले
जिसने जैसा परचा लिक्खा।।
लाखों दस्तक पर भी तेरा,
दरवाजा तो बंद रहा।
जाते जाते दर पे तेरे,
अपना नाम पता लिक्खा।।
यूं रदीफो काफिया,
मिसरे, हमें मालूम थे।
तुम न समझोगे कि क्यों,
हर शेर को मक्ता लिक्खा??
मेरी मंजिल की दुआ,
दिन रात रहती है यही।
पढ़ न पाऊँ मैं उसे,
जो मील के पत्थर पे लिक्खा।।
अपनी आदत है नहीं,
मेहमान से मुख मोड़ना।
उस तीर का स्वागत है,
जिस पे नाम मेरा है लिक्खा।।
गीत, गज़लें या रुबाई,
तुम जो चाहो सो कहो।
एक मोहब्बत ही लिखा,
और 'गिरि' ने क्या लिक्खा?
-आकर्षण कुमार गिरि।
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