सोमवार, 2 मई 2011
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
जहां दुनिया सहमती है, दिवाना कर गुजरता है
कि.. मैं जब मैं नहीं होता, तभी तुम तुम भी नहीं होती
तमाशा जिन्दगी में वक्त के साये में होता है
कि जब सूरज नहीं होता है, परछाईं नहीं होती
न वो तेरी कहानी है, न वो मेरी कहानी है
जिसे सब इश्क कहते हैं, वो किस्सा-ए-नादानी है
सुना है इश्क के किस्सों पे वो चर्चा नहीं होती
कि अब कान्हा नहीं रोता, कि अब राधा नहीं रोती
कि जब सूरज नहीं होता है, परछाईं नहीं होती
न वो तेरी कहानी है, न वो मेरी कहानी है
जिसे सब इश्क कहते हैं, वो किस्सा-ए-नादानी है
सुना है इश्क के किस्सों पे वो चर्चा नहीं होती
कि अब कान्हा नहीं रोता, कि अब राधा नहीं रोती
शनिवार, 2 अप्रैल 2011
दिलों का वास्ता कैसा सवालों के जहां साए ?
तेरे दीदार की हसरत, हमारे दिल में पलती है.
हुई मुद्दत मेरी नज़रें, तुम्हारी राह तकती हैं.
यही ख्वाहिश थी बस दिल में, मैं तेरे दर पे आ बैठा.
और उसपे पूछना तेरा, बताओ क्यों यहां आए ?
अनूठे यार हो तुम भी, गज़ब के प्यार हैं हम भी.
भले मझधार हो तुम भी, सुनो पतवार हैं हम भी.
सवालों से तेरे घबरा गया तो ख़ाक याराना.
दिलों का वास्ता कैसा सवालों के जहां साए ?
यही इल्ज़ाम है तुम पर, कि दिल बर्वाद करते हो.
हसीं दिल के कई टुकड़े, दीवानावार करते हो.
मैं तुमसे ये न पुछूंगा, क्यूं वादे से मुकर बैठे ?
मैं तेरा हो नहीं पाया, तू मेरा हो नहीं पाए.
- आकर्षण कुमार गिरि
सोमवार, 14 फ़रवरी 2011
चुभती साँसें मत देखा कर
ख्वाब पुराने मत देखा कर
धुंधली यादें मत देखा कर
और भी दर्द उभर आयेंगे
दिल के छाले मत देखा कर
जीवन में पैबंद बहुत हैं
मूँद ले आँखें मत देखा कर
अपने घर कि बात अलग है
औरों के घर मत देखा कर
कहने वाले बस कहते हैं
दिन में सपने मत देखा कर
जीवन का जब जोग लिया है
चुभती साँसें मत देखा कर
- आकर्षण
मंगलवार, 9 नवंबर 2010
महंगाई और चाँद - 2
मैं तब किशोर था
जब मैं एक कवि सम्मलेन में यूँ ही चला गया
वहां कई कवियों को सुनना अच्छा लगा
बहुत ही अच्छा
पर
दो पंक्तियों ने मुझे अन्दर तक झिंझोड़ कर रख दिया
" ऐ चाँद!
तुम क्यों नहीं उतर आते?
मेरे बेटे की थाली में
रोटी का टुकड़ा बनकर"
शायद इसलिए कि
मैंने पहली बार
चाँद में मामा, सूत काटने वाली बुढ़िया
और प्रियतमा की सूरत से अलग
एक नए बिम्ब की कल्पना सुनी थी...
बाद में मानो-
जैसे जेहन से खो गयी थी ये पंक्तियाँ...
पर आज ये पंक्तियाँ बारहा याद आती हैं
तब
जब मैं महीने का राशन खरीद रहा होता हूँ
तब
जब मुझे अपने बेटे के लिए छोटी सी चीज खरीदनी होती है
तब
जब चैनल वाले चीख चीख कर कह रहे होते हैं
कि महंगाई बढ़ गयी है
और जनता के लिए नीतियाँ बनानेवाले
उनका खंडन करते चले जाते हैं...
और जब दूर फिजाओं में
महंगाई डायन खाय जात है गूंजती है
तब मन में एक कसक सी उठने लगती है...
मैं....
हर महीने बढ़ती महंगाई से अपने वेतन की
तुलना करने लगता हूँ
और वेतन को हमेशा कम पाता हूँ...
बहुत मुश्किल लगता है
एक छोटा सा परिवार चलाना.
अब तो वो उम्र भी नहीं रही
कि
चाँद को मामा कह कर बुलाऊँ
और ये उम्मीद करुं
कि
मामा सब ठीक कर देगा
बचपन में जो चाँद चटकीला नज़र आता था
अब मद्धम नज़र आता है
शायद चाँद भी
कवि की कल्पना
और महंगाई की बोझ से दब चला है
गनीमत है
चाँद पर महंगाई की सीधी मार नहीं पड़ती
वरना वो भी इंसानों की तरह टूट गया होता
खैर,
बीत गया
जब चंदा मामा पुआ पकाया करता था
बीत गया
जब चाँद में कोई बुढ़िया सूत काटा करती थी...
अब तो कवि की कल्पना में चाँद रोटी है.
वो रोटी
जो देश की आधी आबादी को
एक शाम नहीं मिलती
चाँद मद्धम है...
चाँद बोझिल है
चाँद उदास है इन दिनों
बुरा हो !
निगोड़ी महंगाई डायन का...
- आकर्षण कुमार गिरि
जब मैं एक कवि सम्मलेन में यूँ ही चला गया
वहां कई कवियों को सुनना अच्छा लगा
बहुत ही अच्छा
पर
दो पंक्तियों ने मुझे अन्दर तक झिंझोड़ कर रख दिया
" ऐ चाँद!
तुम क्यों नहीं उतर आते?
मेरे बेटे की थाली में
रोटी का टुकड़ा बनकर"
शायद इसलिए कि
मैंने पहली बार
चाँद में मामा, सूत काटने वाली बुढ़िया
और प्रियतमा की सूरत से अलग
एक नए बिम्ब की कल्पना सुनी थी...
बाद में मानो-
जैसे जेहन से खो गयी थी ये पंक्तियाँ...
पर आज ये पंक्तियाँ बारहा याद आती हैं
तब
जब मैं महीने का राशन खरीद रहा होता हूँ
तब
जब मुझे अपने बेटे के लिए छोटी सी चीज खरीदनी होती है
तब
जब चैनल वाले चीख चीख कर कह रहे होते हैं
कि महंगाई बढ़ गयी है
और जनता के लिए नीतियाँ बनानेवाले
उनका खंडन करते चले जाते हैं...
और जब दूर फिजाओं में
महंगाई डायन खाय जात है गूंजती है
तब मन में एक कसक सी उठने लगती है...
मैं....
हर महीने बढ़ती महंगाई से अपने वेतन की
तुलना करने लगता हूँ
और वेतन को हमेशा कम पाता हूँ...
बहुत मुश्किल लगता है
एक छोटा सा परिवार चलाना.
अब तो वो उम्र भी नहीं रही
कि
चाँद को मामा कह कर बुलाऊँ
और ये उम्मीद करुं
कि
मामा सब ठीक कर देगा
बचपन में जो चाँद चटकीला नज़र आता था
अब मद्धम नज़र आता है
शायद चाँद भी
कवि की कल्पना
और महंगाई की बोझ से दब चला है
गनीमत है
चाँद पर महंगाई की सीधी मार नहीं पड़ती
वरना वो भी इंसानों की तरह टूट गया होता
खैर,
बीत गया
जब चंदा मामा पुआ पकाया करता था
बीत गया
जब चाँद में कोई बुढ़िया सूत काटा करती थी...
अब तो कवि की कल्पना में चाँद रोटी है.
वो रोटी
जो देश की आधी आबादी को
एक शाम नहीं मिलती
चाँद मद्धम है...
चाँद बोझिल है
चाँद उदास है इन दिनों
बुरा हो !
निगोड़ी महंगाई डायन का...
- आकर्षण कुमार गिरि
* खेद है कि मुझे उस कवि का नाम याद नहीं आ रहा है जिनकी पंक्तियाँ मैंने उद्धृत की हैं..
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