शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

रिश्तों में एक बार उलझना बाकी है..............

लगता है मैं मंजिल तक आ पहुंचा हूँ
पर मंजिल से परिचय करना बाकी है.

जीवन की हर गुत्थी को सुलझा लूं पर 
रिश्तों में एक बार उलझना बाकी है.

तर्क-ए-ताल्लुक करना है तो तू कर ले 
मेरा आखिरी वादा अब भी बाकी है.

काम वफ़ा के हमने तो हर बार किये 
नाम के साथ वफ़ा का जुड़ना बाकी है.

सोच रहा हूँ आज खिलौने ले आऊँ 
मुझमे मेरा थोडा बचपन बाकी है.

सुख-दुःख हिज्र-ओ-वस्ल के मौसम चले गए 
'गिरि' का मौसम अब भी आना बाकी है. 

- आकर्षण कुमार गिरि



बुधवार, 11 अगस्त 2010

मोहब्बत का एक आशियाना तो हो..............

मुझे ऐसे दर से बचाना सनम
जहाँ तुम हो और कोई दुआ भी न हो.

बहुत थक गया हूँ तेरे प्यार में
मोहब्बत का एक आशियाना तो हो.

कोई शख्स ऐसा न ढूंढे मिला
दिल लगाया हो जिसने और हारा न हो.

खुदा ऐसा दिन क्या कभी आयेगा?
बेवफ़ाई का जिस दिन बहाना न हो.

शोखियों में तेरी घोल दी ये गज़ल
भले 'गिरि' न हों पर तराना तो हो.

-आकर्षण  कुमार गिरि


गुरुवार, 5 अगस्त 2010

क्या काम इबादतखाने की..........


दे दे खुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की.
चाह अगर तो मांग ले मुझसे हिम्मत हो गर लेने की.

इस दुनिया की रौनक से अब इस दिल का क्या काम रहा.
जब नज़रों में अक्स उभरता साकी के अल्हड़पन की.
 
नज़रों में साकी की सूरत साथी जबसे दिखती है.
मदिरा की क्या बात करुं और क्यों चर्चा मयखानों की.

उससे नाता जोड़ लिया है , अब दिल में वो बसता है.
मिलकर एकाकार हुए, क्या काम इबादतखाने की. 
- आकर्षण कुमार गिरि 

क्या बात है उस दीवाने की.

दे दे खुदा के नाम पे प्यारे ताक़त हो गर देने की.
चाह  अगर तो मांग ले मुझसे हिम्मत हो गर लेने की. 

कौन यहाँ किसका होता है, सब मतलब के रिश्ते हैं.
धन दौलत की भाषा में कब कद्र हुई ज़ज्बातों की. 

चाँद ज़मीं पर कब आया कब सूरज जलना छोड़ सका. 
सबकी अपनी  अपनी फितरत, शमा की परवाने की. 

अरे तुम्हारे नाम की दुनिया आज नहीं तो कल होगी. 
आगे बढ़ तू छोड़ पुरानी यादें अपनी बचपन की. 

उपरवाले की उसपर ही वर्क-ए-इनायत  होती है. 
जिसको ना पाने की हसरत और न ग़म कुछ खोने की. 

ऊपर वाले की महफ़िल में सब अपनी मन की गाते हैं. 
जिसके गीत में औरों का ग़म क्या बात है उस दीवाने की.






मंगलवार, 3 अगस्त 2010

हमने मरासिम का सिलसिला देखा

हमने तेरी महफ़िल में तन्हाई का आलम देखा
यार दोस्त रिश्ते नातों में दुनियादारी का दर्पण देखा.

मीत अजाना दर्द सुहाना बरसों का एक कर्ज़ पुराना
तेरी सूरत में हमने ये मत पूछो क्या क्या देखा

तेरी मर्ज़ी मेरी तस्वीर को तू जिस नज़र से देख
तेरी तस्वीर को हमने बतौर-ए-बुतपरस्त देखा

न हम वाकिफ़ ही थे तुमसे न तुम हमसे ही वाकिफ़ थे
हमारा हौसला था हमने मरासिम का सिलसिला देखा

अल्हड फ़क्कड और फ़रेबी सीधा मानो एक जलेबी
जिसने भी हमको देखा बस तन की आंखों से देखा

न जाने इस जहाँ में उसका ठिकाना कहाँ होगा
आसमां को जिसने जमीं की निगाह से देखा

वो और होंगे जिन्होंने बच्चों को खेलते देख
इन मासूम परिंदों में हमने अपना बचपन देखा

आकर्षण कुमार गिरि

गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...