गुरुवार, 29 जुलाई 2010

चांद को मुंह चिढाना चाहता हूँ ......

चांद को मुंह चिढाना चाहता हूँ.
मैं तारों से निभाना चाहता हूँ.

मशीयत से कहो चाहे न मुझको
ज़मीन पर घर बनाना चाहता हूँ

ये दम है कि निकलता ही नहीं
मैं एक वादा निभाना चाहता हूँ.

मुझे बेकद्र दुनिया क्योंकर समझे
ज़माने को बदलना चाहता हूँ.

शनिवार, 24 जुलाई 2010

हर रात बदलती रही हर ख्वाब बदलते रहे

आरज़ू थी कि न बदलूं और बदल जाऊं मैं
एक ही घर में रहे, कमरे बदलते रहे.



हर राह से गुजरूं, तमन्ना मेरे मन की थी
चंद कदम के बाद हम हर राह बदलते रहे.



क्या कहोगे उसको जिसकी जिंदगी की महफ़िल में
हर ताल बदलती रही, हर साज़ बदलते रहे.



महफ़िल में तेरे शेर न गाऊं तो क्या करूं
मिलते रहे तुम सबसे और हर बात बदलते रहे.



कैसे साकार करोगे अपने सपनों को ऐ 'गिरि'
हर रात बदलती रही हर ख्वाब बदलते रहे.

       - आकर्षण कुमार गिरि

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

रोज़, हर रोज़ हम बदलते रहे....

जिंदगी से निबाह करते रहे.
रोज़, हर रोज़ हम बदलते रहे.

दुश्मनों से सदा निभाते रहे.
दोस्तों से फ़रेब करते रहे.

पग पग पे बिछी थी कोई शतरंजी बिसात.
कभी प्यादा, कभी घोड़े की तरह चलते रहे.

कोइ क्योंकर मेरा स्थायी पता मांगे है.
घर किराए का था - हर रोज़ बदलते रहे.

कोई कहता था कि पत्थर के हो तुम.
तुझको हम रोज़ पूजते ही रहे.

मैं भला कैसे समझ पाता तुझे.
तुम तो हर रोज़ रंग बदलते रहे.

तेरी दुआओं में है गज़ब का असर.
 और हम रोज़ अपनी जान से गुजरते रहे.

आवारगी ने "गिरि" तुम्हें मशहूर कर दिया.
रास्ते के हो गये, किसी मंज़िल के न रहे.




रविवार, 18 जुलाई 2010

तुम बहुत याद आये

कांपती कश्ती दिखी मझधार में
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

बीती सदियों का जब हिसाब किया  
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

आज फिर जीने कि ललक जागी है 
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

उसने किसी और को ज़ालिम कहा 
तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये.

उस फ़साने में फिर से 'गिरि' का ज़िक्र था
और तुम बहुत याद बहुत याद बहुत याद आये. 

-आकर्षण कुमार गिरि

शनिवार, 17 जुलाई 2010

क्या कहें......

तुम हमारे हमसफ़र हो क्या कहें!
फिर वही तन्हा सफ़र हम क्या कहें!

यूं तो सीधा ज़िंदगी का है सफ़र
और अपनी चाल टेढी क्या कहें!

तुम बदल जाओगे - ये मालूम था
हम भला कैसे बदलते? क्या कहें!

तेरे बारे में ज़माना पूछता है
रोज एक नई कहानी क्या कहें!

तुम हमें बदनाम करते ही रहे
आदतन अपनी खामोशी क्या कहें!

लोग कहते हैं सुधर जाओ 'गिरि'
लेकिन हम हैं कि हमीं, हम क्या कहें!

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मत पूछो क्या क्या देखा है....

चंद दिनों के इस जीवन में
मत पूछो क्या क्या देखा है.
कैसे कैसे को हमने
कैसा कैसा बनते देखा है

छल प्रपंच और सीनाजोरी  
मुंह में राम बगल में छुरी
ऊपर तक जो जा पहुंचे हैं 
उनको सब करते देखा है. 

जिस शीशे में अक्स तुम्हारा 
एक नहीं कई बार उभरा था
उस बेशर्म को तेरे आगे 
हमने मुकर जाते देखा है.

मत पूछो कैसे वो पहुंचा 
अपने घर के दरवाजे तक 
उसके कंधों पर हमने 
रास्तों का बोझ बड़ा देखा है.

जिनमे ख्वाब बहुत बोये थे
कोमल स्वप्न बहुत सोये थे
नींद खुली तब उन नैनों में
बादल को घिरते देखा है.

जिस खंजर ने दिल पर मेरे
एक नहीं, कई वार किये
उस खंजर को एक कोने में
चुपके से रोते देखा है.

इक्कीसवीं सदी आयी पर
घबराने की बात नहीं है
हमने कितने सिद्धार्थों को
हंसों पर मरते देखा है.

                    - आकर्षण कुमार गिरि




शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

कोई सरकार नहीं तुम जो मुकर जाओगे


चलो वादे पे तेरे फिर से ऐतबार किया 
कोई सरकार नहीं तुम जो मुकर जाओगे 

तन्हाइयों कि भीड़ में तनहा खड़ा हूँ मैं 
देखना है कि कितना इंतज़ार कराओगे

इस  सफ़र में तुम नए हो, और मैं राही नया 
भूले-भटके ही सही, एक रोज़ तो मिल जाओगे 

सख्त हिदायत है, ज़मीं से दूर मत जाना कभी
आसमां तक जाओगे, तो बेनिशां हो जाओगे 

कुछ कमी तुम में है लेकिन, दूर मत करना उन्हें 
ऐसा कर लोगे तो डर है, तुम खुदा हो जाओगे

मुन्तजिर मां  ने दरवाजा खुला रखा है कब से
है  यकीन उसको,  कभी तुम लौट कर घर आओगे 

जहां रहो, तेरा मुनासिब सा इस्तेक़बाल रहे 
गुरूर में हो तुम, शायद ही 'गिरि' के घर आओगे.
- आकर्षण कुमार गिरि 


शुक्रवार, 18 जून 2010

तुझ पर कोई भी आंच न आये


मोहब्बत में कभी तुम पर, कोई भी आंच न आये
कहीं भी तू रहे, सर पर, दुआओं के रहें साए
मोहब्बत के सफ़र में चल पड़े तो याद रख साथी
सफ़र लंबा है और मिलते, दरख्तों के नहीं साए 

जिस महफ़िल में रहते हो, बड़ा हलचल मचाते हो 
कभी किस्से सुनाते हो, कभी ग़ज़लें सुनाते हो 
बड़ा आसान था और तुम बड़े मशहूर हो बैठे 
हमारा नाम जब आया, बताओ तुम क्यों घबराए

हमारी और तुम्हारी दास्तान, एक रोज़ ऐसी हो
कि जागूं रात भर मैं भी, तुम्हें भी नींद न आये 
मुझे तुम हमसफ़र अपना बना लेना मगर सुन ले
नहीं फिर पूछना- हमको, कहाँ लाये और क्यों लाये?

हमारे दिल में रहते हो, हमीं पर वार करते हो
सुना है आजकल तुम तो बड़े व्यापार करते हो
नफ़ा नुकसान अपना तुम समझ लेना मगर साथी
हैं नाज़ुक डोर ये रिश्ते इन्हें खींचा नहीं जाए.  
- आकर्षण कुमार गिरि

शनिवार, 12 जून 2010

जरूरी तो नहीं ...........

हरेक शब की सहर हो ये जरूरी तो नहीं है.
हरेक लब पे तेरा ग़म हो जरूरी तो नहीं है. 

खामोश दिल की सदाओं को वो सुन लेगा यकीनन 
समझ जाए वो दिल की बात जरूरी तो नहीं है. 

कुछ भी हो मोहब्बत में बड़ा नाम होता है. 
हमारी राय भी ऐसी हो जरूरी तो नहीं है. 

जिंदगी दूर - बहुत दूर ले के  आई है. 
उठ के मंजिल भी चली आये जरूरी तो नहीं है.

दरवाज़ा खोलने से पहले इत्मीनान हो लेना. 
हर दस्तक पर मैं होऊं जरूरी तो नहीं है. 

महफ़िल  में बरसते रहे फूलों से कई शेर.
छोड़ जाएँ छाप दिल पर जरूरी तो नहीं है. 

चाँद  तक जा पहुंचे हैं कदम आज इंसान के.
चाँद को बात ये पसंद हो जरूरी तो नहीं है.

इस शहर का एक शायर,एक नाविक और एक महफ़िल.
रात भर चाँद को ढूंढें  ये जरूरी तो नहीं है. 

एक  बार फिर से उसके निशाने पर है गिरि. 
ये उसका आखिरी हो तीर जरूरी तो नहीं है. 

                            आकर्षण.

मंगलवार, 25 मई 2010

तनहा तन्हाई

मैंने जिसको महसूस किया है, वो तेरी परछाई है.
देर हुई पर समझ गया , कितनी तनहा तन्हाई है.

हम ये समझे चुका चुके,  हम तेरा जन्मों का कर्जा
और तकाजा करने देखो, फिर तेरी  याद आई  है. 

जीवन की इस डोर को कब का, वक़्त के हाथो छोड़ चले
किस्मत चाहे गुल जो खिलाये, होनी अपनी रूसवाई है.

दौलत की है खान ये दुनिया-चांदी, सोना, महल, दोमहले 
अपने हाथ में फूटा खप्पर, दिल कि यही कमाई है.

आज ग़ज़ल के पीछे क्यों वो आवारा सा फिरता है?
शायद 'गिरि' के फक्कडपन को, याद किसी की आई है.

                                               - आकर्षण
                          

बुधवार, 5 मई 2010

आज मैं रूठ गया हूँ

उसकी तरह से मैं रूठा हैं, शायद मुझे मना लेगा,
और नहीं तो कम से कम, सर को मेरे सहला देगा.

मैं तो मजबूर हूँ  -   हर हाल में मानना है मुझे
देखना ये है कि वो मुझको क्या सदा देगा?

उसका हक था वो बार बार रूठ जाता था
और जिद ये - कि ये नादां उसे मना लेगा.

आज मैं बे-इन्तेहाँ रूठा हूँ, शायद वो मनाने आये
(झूठ मूठ का रूठा हूँ )
उसका मनाना मुझे, मनाने के गुर सिखा देगा.

'गिरि' तो अभी शोख है, नादाँ है, बड़ा नटखट है,
उसके अल्हड़पन पे खुद ही मुस्कुरा देगा.  

गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...