शनिवार, 24 सितंबर 2011

तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं

नया कुछ कर दिखाना चाहता हूं
तुम्हें मैं आज़माना चाहता हूं .

ग़ज़ल अबतक अधूरी रह गई है
तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं .

तेरी हसरत की सुई चुभ रही है
मैं इक धागा पिरोना चाहता हूं .



ज़माना उसकी बातें कर रहा है
जिसे अपना बनाना चाहता हूं .

'गिरि' अब यूं नहीं खामोश रहिए
मैं इक किस्सा मुकम्मल चाहता हूं .

-आकर्षण कुमार गिरि


19 टिप्‍पणियां:

  1. गिरी जी मकता तो बहुत खुबसूरत बना है और पूरी ग़ज़ल गजब वाह वाह

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  2. आकर्षण जी बहुत अच्छी ग़ज़ल है . एक गुज़ारिश है की कठिन उर्दू शब्दों के अर्थ भी नीचे लिख दें तो हम जैसों के लिए समझना आसान हो जायेगा

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  3. उम्दा और बेहतरीन .शक्ति-स्वरूपा माँ आपमें स्वयं अवस्थित हों .शुभकामनाएं.

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  4. शक्ति-स्वरूपा माँ आपमें स्वयं अवस्थित हों .शुभकामनाएं.

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  5. शक्ति-स्वरूपा माँ आपमें स्वयं अवस्थित हों .शुभकामनाएं.

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  6. हर शेर बेहतरीन...
    उम्‍दा गजल।
    आभार आपका......

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  7. वाह!
    बहुत शानदार ग़ज़ल प्रस्तुत की है आपने!
    आश्चर्य है कि अब तक मेरी नज़र से यह ब्लॉग ओझल क्यों रहा?

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  8. भावनाओ और शब्दों का अद्दभुत समन्वय
    बहुत खूब

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  9. ग़ज़ल अब तक अधूरी थी
    तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूँ .....

    क्या बात है ....
    आप यूँ ही मक्ता बनाते रहिये ग़ज़ल भी एक दिन बन जाएगी .....

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