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शनिवार, 2 जनवरी 2010

एक ग़ज़ल

तुम्हारी नज़र में ग़ज़ल पढ़ रहा  हूँ
नहीं वक़्त के साथ मैं चल रहा हूँ

हरेक शेर हर मिसरा  हरेक लब्ज़ खूबसूरत
आज मैं अपनी ग़ज़ल पे तरस खा रहा हूँ

न साधू हूँ मैं, न तो जोगी ही हूँ
तो फिर नाम तेरा मैं क्यों जप रहा हूँ

कारवां दूर मेरा और मंजिल अजाना
कदम थक गए हैं मगर चल रहा हूँ
                             आकर्षण

मेरे जिगर को मेरी मुफलिसी ने काट दिया

दिलों का दर्द मेरी आशिकी ने काट दिया।  मेरी मियाद मेरी मैकशी ने काट दिया।  बयान करने को अब कोई बहाना न बना  तेरी ज़बान मेरी ख़ामुशी ने काट दि...