बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

काफ़िर और इबादत

जमाना उसकी आँखों में खुदाया ढूंढ लेता है।
मोहब्बत के लिखावट की स्याही ढूंढ लेता है।।
मैं काफिर हूँ, मुझे उसकी निगाहों से नहीं मतलब।
इबादत को मेरा मन उसकी सूरत ढूंढ लेता है।   
                            - आकर्षण कुमार गिरि

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

करो शिकवा मगर संजीदगी से

वो तड़पेगा मोहब्बत की कमी से जो जलता है निगाहों की नमी से। यही दस्तूर है सदियों सदी से समंदर खुद नहीं मिलता नदी से। मिलन का बोझ सारा है नदी ...