चंद दिनों के इस जीवन में
मत पूछो क्या क्या देखा है.
कैसे कैसे को हमने
कैसा कैसा बनते देखा है
छल प्रपंच और सीनाजोरी
मुंह में राम बगल में छुरी
ऊपर तक जो जा पहुंचे हैं
उनको सब करते देखा है.
जिस शीशे में अक्स तुम्हारा
एक नहीं कई बार उभरा था
उस बेशर्म को तेरे आगे
हमने मुकर जाते देखा है.
मत पूछो कैसे वो पहुंचा
अपने घर के दरवाजे तक
उसके कंधों पर हमने
रास्तों का बोझ बड़ा देखा है.
जिनमे ख्वाब बहुत बोये थे
कोमल स्वप्न बहुत सोये थे
नींद खुली तब उन नैनों में
बादल को घिरते देखा है.
जिस खंजर ने दिल पर मेरे
एक नहीं, कई वार किये
उस खंजर को एक कोने में
चुपके से रोते देखा है.
इक्कीसवीं सदी आयी पर
घबराने की बात नहीं है
हमने कितने सिद्धार्थों को
हंसों पर मरते देखा है.
- आकर्षण कुमार गिरि
hmm,,,,,,toh saheb aajkal shayar ho gaye hai. apna phone no toh de. aapka bhula hua dost. alok
जवाब देंहटाएंचलो, मैं याद तो हूँ . और हम भी आप लोगों को नहीं भूले हैं. ब्लोग पर तो बस ऐसे ही लिख लेता हूँ. आप तो अभी पटना में ही हैं .
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