जिसे शिद्दत से जब चाहा, वही हर बार छूटे हैं।ज़माना तब नहीं समझा, ज़माना अब क्या समझेगा?
कि तब हम छूट जाते थे, मगर अब टूट जाते हैं।
- गिरि
वो तड़पेगा मोहब्बत की कमी से जो जलता है निगाहों की नमी से। यही दस्तूर है सदियों सदी से समंदर खुद नहीं मिलता नदी से। मिलन का बोझ सारा है नदी ...
बहुत सुन्दर और मार्मिक रचना।
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