तुम माटी के पुतले
निकले।
सोच से बिल्कुल उल्टे
निकले।।
मंजिल उनके सजदे करती।
जो भी घर से बाहर निकले।।
अपने ग़म को बांध के
रख लो।
शायद अरमां अब कम
निकले।।
घर की जानिब जिनका रुख
था।
वो ही सबसे बेहतर
निकले।।
उसको चल कुछ कह कर
निकलें।
शायद वो भी हमदम निकले।।
तुम थे... मैं था... ठीक ही था।
तीसरे शायद मौसम निकले।।
महफिल को बेनूर है होना।
हम निकलें या.. हमदम निकले।।
शफक तुम्हारे कदमों में है।
लेकिन 'गिरि' को अब पर निकले।।
- आकर्षण।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-06-2015) को "घर में पहचान, महानों में महान" {चर्चा अंक-2008} पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत खूबसूरत रचना
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग Dynamic पर आपका स्वागत है
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