शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

मुझे नफरत हुई है खुदकुशी से

मुखातिब हो गया हूं आदमी से।

मोहब्बत हो गई है जिंदगी से।

दुआओं में असर उसके नहीं है।

दुआ देता है वो, पर बेदिली से।


मोहब्बत का नया दस्तूर है ये।

नहीं मिलता यहां कुछ बंदगी से।


गुनाहों को किसी के नाम करता।

मेरा चेहरा नहीं मिलता किसी से।


कोई कितना भी चाहे सर पटक ले।

ये मसला हल नहीं होगा किसी से।


यही हासिल हुआ आवारगी में।

मसाफ़त हो गई उसकी गली से।


बहुत मरता हूं पर मरता नहीं मैं।

मुझे नफरत हुई है खुदकुशी से।


खता कुछ हो गई होगी हमीं से।

ये होती रहती है हर आदमी से।


बहर में कैद कर दिया मुझको।

'मैं आज़िज आ गया हूं शायरी से।'


न बैठो इस कदर संजीदगी से।

'गिरिजी' तब निभेगी जिंदगी से।


3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी घायल पढ़ते पढ़ते लगा जैसे किसी ने ज़िंदगी से लड़ते-लड़ते सुकून ढूंढ लिया हो। मोहब्बत, नफ़रत, तन्हाई — सब कुछ इतने सलीके से पिरोया गया है कि हर एहसास अपनी जगह छोड़ जाता है। आख़िरी शेर तो जैसे एक नसीहत बनकर सामने आता है, “न बैठो इस क़दर संजीदगी से”, वाह, क्या बात कही है!

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करो शिकवा मगर संजीदगी से

वो तड़पेगा मोहब्बत की कमी से जो जलता है निगाहों की नमी से। यही दस्तूर है सदियों सदी से समंदर खुद नहीं मिलता नदी से। मिलन का बोझ सारा है नदी ...