नया कुछ कर दिखाना चाहता हूं
तुम्हें मैं आज़माना चाहता हूं .
ग़ज़ल अबतक अधूरी रह गई है
तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं .
तेरी हसरत की सुई चुभ रही है
मैं इक धागा पिरोना चाहता हूं .
ज़माना उसकी बातें कर रहा है
जिसे अपना बनाना चाहता हूं .
'गिरि' अब यूं नहीं खामोश रहिए
मैं इक किस्सा मुकम्मल चाहता हूं .
-आकर्षण कुमार गिरि
बहुत ही सुन्दर....
जवाब देंहटाएंगिरी जी मकता तो बहुत खुबसूरत बना है और पूरी ग़ज़ल गजब वाह वाह
जवाब देंहटाएंबहुत खुबसूरत.......
जवाब देंहटाएंAchchhi rachna hai..Badhai
जवाब देंहटाएंआकर्षण जी बहुत अच्छी ग़ज़ल है . एक गुज़ारिश है की कठिन उर्दू शब्दों के अर्थ भी नीचे लिख दें तो हम जैसों के लिए समझना आसान हो जायेगा
जवाब देंहटाएंउम्दा और बेहतरीन .शक्ति-स्वरूपा माँ आपमें स्वयं अवस्थित हों .शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंशक्ति-स्वरूपा माँ आपमें स्वयं अवस्थित हों .शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंशक्ति-स्वरूपा माँ आपमें स्वयं अवस्थित हों .शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंहर शेर बेहतरीन...
जवाब देंहटाएंउम्दा गजल।
आभार आपका......
अच्छी गजल ...बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंवाह गिरी भाई...धारदार॥/
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार ग़ज़ल प्रस्तुत की है आपने!
आश्चर्य है कि अब तक मेरी नज़र से यह ब्लॉग ओझल क्यों रहा?
बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें !
good expression.
जवाब देंहटाएंभावनाओ और शब्दों का अद्दभुत समन्वय
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
Badhiya kavita.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब !!
जवाब देंहटाएंग़ज़ल अब तक अधूरी थी
जवाब देंहटाएंतुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूँ .....
क्या बात है ....
आप यूँ ही मक्ता बनाते रहिये ग़ज़ल भी एक दिन बन जाएगी .....
behtreen gazal....
जवाब देंहटाएं