रविवार, 14 जून 2015

शायद वो भी हमदम निकले......

तुम माटी के पुतले निकले।

सोच से बिल्कुल उल्टे निकले।।


मंजिल उनके सजदे करती।

जो भी घर से बाहर निकले।।


अपने ग़म को बांध के रख लो।

शायद अरमां अब कम निकले।।


घर की जानिब जिनका रुख था।

वो ही सबसे बेहतर निकले।।


उसको चल कुछ कह कर निकलें।

शायद वो भी हमदम निकले।।


तुम थे... मैं था... ठीक ही था।

तीसरे शायद मौसम निकले।।


महफिल को बेनूर है होना।

हम निकलें या.. हमदम निकले।।


शफक तुम्हारे कदमों में है।

लेकिन 'गिरि' को अब पर निकले।।


    - आकर्षण।

शनिवार, 23 मई 2015

मौला तेरे घर आएंगे....


जब भी राज उजागर होगा ।
सामने कोई सागर होगा ।।

जिसकी जितनी चादर होगी
 उसका उतना ही कद होगा ।।

जीवन जिसका खुद एक दर्पण ।
शायर वो ही शायर होगा ।।

दिल की बात को दिल में रखना ।
गागर तब ये सागर होगा ।।

उससे कन्नी काट के चलना ।
जिसके हाथ में पावर होगा ।।

मौला तेरे घर आएंगे ।
जब तू खुद से बाहर होगा ।।

'गिरि' को उसमें डूबना होगा ।
जिसका नाम समंदर होगा ।।

                - आकर्षण।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

सुना है इक नया किस्सा, यूं ही हर बार गढ़ते हो

तुम्हारी प्यार की बातों में, इक किस्सा पुराना है
किसी का कर्ज है तुमपर, वो भी हमको चुकाना है। 
मेरी दीवानगी को तुम न समझे हो, न समझोगे
जिसे कल गा रहे थे तुम, उसे सबको सुनाना है।





तेरी आंखों के हर सपने को, सीने में सजा लूंगा
तेरी जज्बात की बातों को, होठों में छुपा लूंगा।
बता, मैं दिल की धड़कन को छुपाऊंगा भला कैसे?
जो धड़कन तेज होती है, तमाशा खूब होता है।





यही शिकवा है बस.. तुमसे, जो जी चाहे वो करते हो
कि तुम जज्बात की बातें, 
भरी महफिल में करते हो।
तेरी दीवानगी में कुछ न हो, पर नाम तो होगा
सुना है इक नया किस्सा, यूं ही, हर बार गढ़ते हो।

                           - आकर्षण कुमार गिरि


 

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

दर्द

दर्द जब खुद ही संवर जाता है
जाने कितनों का ग़म चुराता है

मेरे ज़ख्मों का चीरकर सीना
कर्ज़ औरों के वो चुकाता है

तेरी सोहबत का उस पे साया है
और, हरदम उसे सताता है

रास्ते भर वो बात करता रहा
और मंजिल पर मुंह चुराता है


जी लिया, और फिर जिया भी नहीं
रिश्ता कुछ इस तरह निभाता है 

क्या करेगा गिरि जहां का ग़म
तबीयत से तू मुस्कुराता है

- आकर्षण कुमार गिरि

शनिवार, 24 सितंबर 2011

तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं

नया कुछ कर दिखाना चाहता हूं
तुम्हें मैं आज़माना चाहता हूं .

ग़ज़ल अबतक अधूरी रह गई है
तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं .

तेरी हसरत की सुई चुभ रही है
मैं इक धागा पिरोना चाहता हूं .



ज़माना उसकी बातें कर रहा है
जिसे अपना बनाना चाहता हूं .

'गिरि' अब यूं नहीं खामोश रहिए
मैं इक किस्सा मुकम्मल चाहता हूं .

-आकर्षण कुमार गिरि


गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...