शनिवार, 23 मई 2015

मौला तेरे घर आएंगे....


जब भी राज उजागर होगा ।
सामने कोई सागर होगा ।।

जिसकी जितनी चादर होगी
 उसका उतना ही कद होगा ।।

जीवन जिसका खुद एक दर्पण ।
शायर वो ही शायर होगा ।।

दिल की बात को दिल में रखना ।
गागर तब ये सागर होगा ।।

उससे कन्नी काट के चलना ।
जिसके हाथ में पावर होगा ।।

मौला तेरे घर आएंगे ।
जब तू खुद से बाहर होगा ।।

'गिरि' को उसमें डूबना होगा ।
जिसका नाम समंदर होगा ।।

                - आकर्षण।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

सुना है इक नया किस्सा, यूं ही हर बार गढ़ते हो

तुम्हारी प्यार की बातों में, इक किस्सा पुराना है
किसी का कर्ज है तुमपर, वो भी हमको चुकाना है। 
मेरी दीवानगी को तुम न समझे हो, न समझोगे
जिसे कल गा रहे थे तुम, उसे सबको सुनाना है।





तेरी आंखों के हर सपने को, सीने में सजा लूंगा
तेरी जज्बात की बातों को, होठों में छुपा लूंगा।
बता, मैं दिल की धड़कन को छुपाऊंगा भला कैसे?
जो धड़कन तेज होती है, तमाशा खूब होता है।





यही शिकवा है बस.. तुमसे, जो जी चाहे वो करते हो
कि तुम जज्बात की बातें, 
भरी महफिल में करते हो।
तेरी दीवानगी में कुछ न हो, पर नाम तो होगा
सुना है इक नया किस्सा, यूं ही, हर बार गढ़ते हो।

                           - आकर्षण कुमार गिरि


 

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

दर्द

दर्द जब खुद ही संवर जाता है
जाने कितनों का ग़म चुराता है

मेरे ज़ख्मों का चीरकर सीना
कर्ज़ औरों के वो चुकाता है

तेरी सोहबत का उस पे साया है
और, हरदम उसे सताता है

रास्ते भर वो बात करता रहा
और मंजिल पर मुंह चुराता है


जी लिया, और फिर जिया भी नहीं
रिश्ता कुछ इस तरह निभाता है 

क्या करेगा गिरि जहां का ग़म
तबीयत से तू मुस्कुराता है

- आकर्षण कुमार गिरि

शनिवार, 24 सितंबर 2011

तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं

नया कुछ कर दिखाना चाहता हूं
तुम्हें मैं आज़माना चाहता हूं .

ग़ज़ल अबतक अधूरी रह गई है
तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं .

तेरी हसरत की सुई चुभ रही है
मैं इक धागा पिरोना चाहता हूं .



ज़माना उसकी बातें कर रहा है
जिसे अपना बनाना चाहता हूं .

'गिरि' अब यूं नहीं खामोश रहिए
मैं इक किस्सा मुकम्मल चाहता हूं .

-आकर्षण कुमार गिरि


गुरुवार, 14 जुलाई 2011

अपने जज्बात तजुर्बात संभाले रखना

बेरुखी का कोई चिराग जलाये रखना
कम से कम एक सितारे को सताये रखना
शमा जल जायेगी बुझ जायेगी रुसवा होगी
दिल में जज्बात की इक लौ को जलाये रखना 



तू वहीं है जहां से मेरी सदा लौटी है
अगर सुना न हो तो कान लगाये रखना
न जाने कौन सी महफिल है जहां पे मैं भी नहीं
मेरी जज्बात की रंगत को बनाये रखना

साथ वो आये न आये है ये उसकी मर्जी
अपने जज्बात तजुर्बात संभाले रखना
जिन्दगी दूर से कु्छ ऐसी सदा देती है
कोई मुश्किल
नहीं अपनों को अपनाये रखना।

ख्वाब आंखों में न हों फिर भी कोई बात नहीं
अपने सीने में कोई सपना सजाये रखना
कौन कहता है कि मद्धिम नहीं होगा सुरज
अपने अल्फाज की रंगत को चमकाये रखना

नहीं कहूंगा कि मैं हूं किताब पढ मुझको
दिल के अलमीरे में तू मुझको सजाये रखना
कि जिस किताब को पढा नहीं तूने अबतक
उसकी हर वर्क पे नजरों को जमाये रखना



बस एक सवाल से क्यों मुझसे खफा हो बैठे
मेरी बातों को न यूं दिल से लगाये रखना
कोई फ़र्क भी नहीं तुम जवाब दो या न दो
मेरी आदत है - सवालों को सजाये रखना



                               - आकर्षण कुमार गिरि

सोमवार, 2 मई 2011

घर की खुशबू कुरान जैसी है

ख्वाब उनमें नहीं अब पलते हैं
उसकी आंखें चिराग़ जैसी हैं

उसकी आंखों में है जहां का ग़म
उसकी किस्मत खुदा के जैसी है

कहने को तो दुनिया भी एक महफिल है
इसकी सूरत बाजार जैसी है

हरेक घर को इबादत की नजर से देखो
घर की खुशबू कुरान जैसी है

जबसे आया हूं होम करता रहा हूं
जिन्दगी हवन कुंड के जैसी है


- आकर्षण कुमार गिरि

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

जहां दुनिया सहमती है, दिवाना कर गुजरता है

कभी तुमसे शिकायत की, कोई सूरत नहीं होती
कि.. मैं जब मैं नहीं होता, तभी तुम तुम भी
 
नहीं होती
तमाशा जिन्दगी में वक्त के साये में होता है
कि जब सूरज नहीं होता है, परछाईं नहीं होती

न वो तेरी कहानी है, न वो मेरी कहानी है
जिसे सब इश्क कहते हैं, वो किस्सा-ए-नादानी है
सुना है इश्क के किस्सों पे वो चर्चा नहीं होती
कि अब कान्हा नहीं रोता, कि अब राधा नहीं रोती



नजर आबाद होती है, तो दिल बर्बाद होता है
जिगरवालों की बस्ती में, तमाशा खूब होता है
  मैं तुझसा भी बन सकता था ऐ साथी, मगर सुन ले
जहां दुनिया सहमती है, दिवाना कर गुजरता है

                                               आकर्षण

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

दिलों का वास्ता कैसा सवालों के जहां साए ?

तेरे दीदार की हसरत, हमारे दिल में पलती है.
हुई मुद्दत मेरी नज़रें, तुम्हारी राह तकती हैं.
यही ख्वाहिश थी बस दिल में, मैं तेरे दर पे आ बैठा.
और उसपे पूछना तेरा, बताओ क्यों यहां आए ?


अनूठे यार हो तुम भी, गज़ब के प्यार हैं हम भी.
भले मझधार हो तुम भी, सुनो पतवार हैं हम भी.
सवालों से तेरे घबरा गया तो ख़ाक याराना.
दिलों का वास्ता कैसा सवालों के जहां साए ?

यही इल्ज़ाम है तुम पर, कि दिल बर्वाद करते हो.
हसीं दिल के कई टुकड़े, दीवानावार करते हो.
मैं तुमसे ये न पुछूंगा, क्यूं वादे से मुकर बैठे ?
मैं तेरा हो नहीं पाया, तू मेरा हो नहीं पाए.

                              - आकर्षण कुमार गिरि

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

चुभती साँसें मत देखा कर

ख्वाब पुराने मत देखा कर
धुंधली यादें मत देखा कर

और भी दर्द उभर आयेंगे 
दिल के छाले मत देखा कर

जीवन में पैबंद बहुत हैं
मूँद ले आँखें मत देखा कर

अपने घर कि बात अलग है
औरों के घर मत देखा कर 

कहने वाले बस कहते हैं 
दिन में सपने मत देखा कर

जीवन का जब जोग लिया है
चुभती साँसें मत देखा कर
- आकर्षण


मंगलवार, 9 नवंबर 2010

महंगाई और चाँद - 2

मैं तब किशोर था
जब मैं एक कवि सम्मलेन में यूँ ही चला गया
वहां कई कवियों को सुनना अच्छा लगा
बहुत ही अच्छा
पर
दो पंक्तियों ने मुझे अन्दर तक झिंझोड़ कर रख दिया
" ऐ चाँद!
तुम क्यों नहीं उतर आते?
मेरे बेटे की थाली में
रोटी का टुकड़ा बनकर"
शायद इसलिए कि
मैंने पहली बार
चाँद में मामा, सूत काटने वाली बुढ़िया
और प्रियतमा की सूरत से अलग
एक नए बिम्ब की कल्पना सुनी थी...
बाद में मानो-
जैसे जेहन से खो गयी थी ये पंक्तियाँ...
पर आज ये पंक्तियाँ बारहा याद आती हैं
तब
जब मैं महीने का राशन खरीद रहा होता हूँ
तब
जब मुझे अपने बेटे के लिए छोटी सी चीज खरीदनी होती है
तब
जब चैनल वाले चीख चीख कर कह रहे होते हैं
कि महंगाई बढ़ गयी है
और जनता के लिए नीतियाँ बनानेवाले
उनका खंडन करते चले जाते हैं...
और जब दूर फिजाओं में
महंगाई डायन खाय जात है गूंजती है
तब मन में एक कसक सी उठने लगती है...
मैं....
हर महीने बढ़ती महंगाई से अपने वेतन की
तुलना करने लगता हूँ
और वेतन को हमेशा कम पाता हूँ...
बहुत मुश्किल लगता है
एक छोटा सा परिवार चलाना.
अब तो वो उम्र भी नहीं रही
कि
चाँद को मामा कह कर बुलाऊँ
और ये उम्मीद करुं
कि
मामा सब ठीक कर देगा
बचपन में जो चाँद चटकीला नज़र आता था
अब मद्धम नज़र आता है
शायद चाँद भी
कवि की कल्पना
और महंगाई की बोझ से दब चला है
गनीमत है
चाँद पर महंगाई की सीधी मार नहीं पड़ती
वरना वो भी इंसानों की तरह टूट गया होता
खैर,
बीत गया
जब चंदा मामा पुआ पकाया करता था
बीत गया
जब चाँद में कोई बुढ़िया सूत काटा करती थी...
अब तो कवि की कल्पना में चाँद रोटी है.
वो रोटी
जो देश की आधी आबादी को
एक शाम नहीं मिलती
चाँद मद्धम है...
चाँद बोझिल है
चाँद उदास है इन दिनों
बुरा हो !
निगोड़ी महंगाई डायन का...

- आकर्षण कुमार गिरि
* खेद है कि मुझे उस कवि का नाम याद नहीं आ रहा है जिनकी पंक्तियाँ मैंने उद्धृत की हैं..

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

महंगाई और चांद-1

इस कमरतोड महंगाई में
जबसे रोटी का जुगाड दूभर हुआ है
कवियों ने चांद में रोटी देखना शुरू कर दिया
और अब.....
धुंधला सा चांद 
अपना पता बताने से डरने लगा है.....

गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...