सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

दर्द

दर्द जब खुद ही संवर जाता है
जाने कितनों का ग़म चुराता है

मेरे ज़ख्मों का चीरकर सीना
कर्ज़ औरों के वो चुकाता है

तेरी सोहबत का उस पे साया है
और, हरदम उसे सताता है

रास्ते भर वो बात करता रहा
और मंजिल पर मुंह चुराता है


जी लिया, और फिर जिया भी नहीं
रिश्ता कुछ इस तरह निभाता है 

क्या करेगा गिरि जहां का ग़म
तबीयत से तू मुस्कुराता है

- आकर्षण कुमार गिरि

शनिवार, 24 सितंबर 2011

तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं

नया कुछ कर दिखाना चाहता हूं
तुम्हें मैं आज़माना चाहता हूं .

ग़ज़ल अबतक अधूरी रह गई है
तुम्हें मक्ता बनाना चाहता हूं .

तेरी हसरत की सुई चुभ रही है
मैं इक धागा पिरोना चाहता हूं .



ज़माना उसकी बातें कर रहा है
जिसे अपना बनाना चाहता हूं .

'गिरि' अब यूं नहीं खामोश रहिए
मैं इक किस्सा मुकम्मल चाहता हूं .

-आकर्षण कुमार गिरि


गुरुवार, 14 जुलाई 2011

अपने जज्बात तजुर्बात संभाले रखना

बेरुखी का कोई चिराग जलाये रखना
कम से कम एक सितारे को सताये रखना
शमा जल जायेगी बुझ जायेगी रुसवा होगी
दिल में जज्बात की इक लौ को जलाये रखना 



तू वहीं है जहां से मेरी सदा लौटी है
अगर सुना न हो तो कान लगाये रखना
न जाने कौन सी महफिल है जहां पे मैं भी नहीं
मेरी जज्बात की रंगत को बनाये रखना

साथ वो आये न आये है ये उसकी मर्जी
अपने जज्बात तजुर्बात संभाले रखना
जिन्दगी दूर से कु्छ ऐसी सदा देती है
कोई मुश्किल
नहीं अपनों को अपनाये रखना।

ख्वाब आंखों में न हों फिर भी कोई बात नहीं
अपने सीने में कोई सपना सजाये रखना
कौन कहता है कि मद्धिम नहीं होगा सुरज
अपने अल्फाज की रंगत को चमकाये रखना

नहीं कहूंगा कि मैं हूं किताब पढ मुझको
दिल के अलमीरे में तू मुझको सजाये रखना
कि जिस किताब को पढा नहीं तूने अबतक
उसकी हर वर्क पे नजरों को जमाये रखना



बस एक सवाल से क्यों मुझसे खफा हो बैठे
मेरी बातों को न यूं दिल से लगाये रखना
कोई फ़र्क भी नहीं तुम जवाब दो या न दो
मेरी आदत है - सवालों को सजाये रखना



                               - आकर्षण कुमार गिरि

सोमवार, 2 मई 2011

घर की खुशबू कुरान जैसी है

ख्वाब उनमें नहीं अब पलते हैं
उसकी आंखें चिराग़ जैसी हैं

उसकी आंखों में है जहां का ग़म
उसकी किस्मत खुदा के जैसी है

कहने को तो दुनिया भी एक महफिल है
इसकी सूरत बाजार जैसी है

हरेक घर को इबादत की नजर से देखो
घर की खुशबू कुरान जैसी है

जबसे आया हूं होम करता रहा हूं
जिन्दगी हवन कुंड के जैसी है


- आकर्षण कुमार गिरि

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

जहां दुनिया सहमती है, दिवाना कर गुजरता है

कभी तुमसे शिकायत की, कोई सूरत नहीं होती
कि.. मैं जब मैं नहीं होता, तभी तुम तुम भी
 
नहीं होती
तमाशा जिन्दगी में वक्त के साये में होता है
कि जब सूरज नहीं होता है, परछाईं नहीं होती

न वो तेरी कहानी है, न वो मेरी कहानी है
जिसे सब इश्क कहते हैं, वो किस्सा-ए-नादानी है
सुना है इश्क के किस्सों पे वो चर्चा नहीं होती
कि अब कान्हा नहीं रोता, कि अब राधा नहीं रोती



नजर आबाद होती है, तो दिल बर्बाद होता है
जिगरवालों की बस्ती में, तमाशा खूब होता है
  मैं तुझसा भी बन सकता था ऐ साथी, मगर सुन ले
जहां दुनिया सहमती है, दिवाना कर गुजरता है

                                               आकर्षण

गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...