रविवार, 24 अक्तूबर 2010

खूबसुरत सनम शुक्रिया

खूबसुरत सनम शुक्रिया
आप नज़रें चुरा लीजिये
 
मेरी आंखें तो बस में नहीं
आप काजल लगा लीजिये

जिंदगी घिस न जाये कहीं
हाथ आगे बढा दीजिये

बात शेरों से बनती नहीं
मेरे लब पे रहा कीजिये

भीड़ ज्यादा है बाज़ार में
'गिरि' के दिल में रहा कीजिये 

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

खामोश मिलन

आज

जबकि ये तय है

कि हमें बिछड़ जाना है

हमारे और तुम्हारे रास्ते

अलग अलग हो चुके हैं

तो

ये सोचना जरूरी है

कि हम गलत थे

या तुम?

मैं सोचता हूँ

और सोचता चला जाता हूँ...

कहीं मैं तो गलत नहीं था

शायद!

क्योंकि तुम तो गलत हो नहीं सकते

मुझे लगता है

मैं ही गलत था

मैं ये भी जानता हूँ

कि

तुम भी यही सोच रही हो

कि कहीं तुम तो गलत नहीं थी?

सच मानो-

रास्ते आज भले ही अलग अलग हो गए हों

पर

न मैं गलत था

और न ही तुम.

फिर ये जुदाई क्यों?

ये प्रश्न बार बार कौंध जाता है

मेरे जेहन में .

मैं सोचने लगता हूँ...

जमीं आसमां नहीं मिलते

( विज्ञान में यही पढ़ा है

पर विज्ञान कुछ भी कहे )

जमीं आसमां मिलते हैं

एक छोर से मिलते हुए

वे जुदा होते हैं

और

फिर मिल जाते हैं

सच्चाई यही है कि

चारो दिशाओं में

वे एक हैं.

बीच में हम जैसे लोग हैं

जो ये समझते हैं कि

जमीं आसमां एक नहीं हैं.

करोड़ों तारों कि तपिश

अपने कलेजे में रखने वाला आसमां

और

अरबों लातों की मार सहने वाली धरती

एक हैं.

फिर हम तुम जुदा कैसे?

हम मिलकर चले थे,

आज जुदा हैं -

पर आगे फिर मिलेंगे.

हाँ!

उसके बाद जुदाई नहीं होगी

क्योंकि

जितना दर्द तुमने अपने कलेजे में छुपा कर रखा है

उतना ही शायद मैंने भी.

और दर्द सीने में दबाये रखने वाले

एक होकर रहते हैं

वो भी ऐसे

जैसे दूर क्षितिज पर

जमीं और आसमां

जहाँ से वे अलग नहीं होते.

मैं तुम्हें रुकने को नहीं कहूंगा

और न ही मिलने को कहूंगा

पर हम फिर मिलेंगे

उसी ख़ामोशी से जैसे पहले मिले थे.

हाँ !

ये मिलन खामोश होगा

क्योंकि

जिनके कलेजे में दर्द होता है

उनकी जुबां नहीं हिलती

बिलकुल मेरी तरह....

बिलकुल तुम्हारी तरह.....

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

चाहनेवाले कमाल करते हैं

ज़ख्म दिल पर क़ुबूल करते हैं
अपनी रातें बबूल करते हैं

लब पे अब लर्ज़िश ए हसरत न रही
हम तेरे हैं गुरुर करते हैं

चाहतों में भले असर कम हो
चाहनेवाले कमाल करते हैं

जिंदगी से नहीं निभी उनकी
ज़ख्म को जो जुनून करते हैं

रोशनी के लिये कभी सूरज
राह तारों की नहीं तकते हैं

उनका हर लब्ज़ संभाल के रखना
वो तो हर बात पे मुकरते हैं

जब कभी पूछिये वस्ल ए जाना
'गिरि' ख्वाबों की बात करते हैं

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

रिश्तों में एक बार उलझना बाकी है..............

लगता है मैं मंजिल तक आ पहुंचा हूँ
पर मंजिल से परिचय करना बाकी है.

जीवन की हर गुत्थी को सुलझा लूं पर 
रिश्तों में एक बार उलझना बाकी है.

तर्क-ए-ताल्लुक करना है तो तू कर ले 
मेरा आखिरी वादा अब भी बाकी है.

काम वफ़ा के हमने तो हर बार किये 
नाम के साथ वफ़ा का जुड़ना बाकी है.

सोच रहा हूँ आज खिलौने ले आऊँ 
मुझमे मेरा थोडा बचपन बाकी है.

सुख-दुःख हिज्र-ओ-वस्ल के मौसम चले गए 
'गिरि' का मौसम अब भी आना बाकी है. 

- आकर्षण कुमार गिरि



बुधवार, 11 अगस्त 2010

मोहब्बत का एक आशियाना तो हो..............

मुझे ऐसे दर से बचाना सनम
जहाँ तुम हो और कोई दुआ भी न हो.

बहुत थक गया हूँ तेरे प्यार में
मोहब्बत का एक आशियाना तो हो.

कोई शख्स ऐसा न ढूंढे मिला
दिल लगाया हो जिसने और हारा न हो.

खुदा ऐसा दिन क्या कभी आयेगा?
बेवफ़ाई का जिस दिन बहाना न हो.

शोखियों में तेरी घोल दी ये गज़ल
भले 'गिरि' न हों पर तराना तो हो.

-आकर्षण  कुमार गिरि


गरल जो पी नही पाया अमर वो हो नहीं सकता

  जो मन में गांठ रखता है, सरल वो हो नहीं सकता। जो  विषधर है, भुवन में वो अमर हो ही नहीं सकता।। सरल है जो- ज़माने में अमर वो ही सदा होगा। गरल ...